ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितगनि परासुव। यद्भद्रं तन्नअ्आसुव

ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितगनि परासुव।
यद्भद्रं तन्नअ्आसुव।।
भक्त ईश्वर से प्रार्थना करता है कि विश्वानि देव हे परमेश्वर आप तो देव हो सबको देते हो ,इसलिए मुझे भी दो,तो ईश्वर कहता है कि बोलो क्या चाहिये ? जो कहोगे वही दे दूंगा। भक्त बोला यद्भद्रं तन्नअ्आसुव जो भी कल्याण करने वाले गुण ,कर्म और पदार्थ है वह सब दे दो।तो ईश्वर बोला वाह! बेटे अपने काम की बात याद रखी दूसरी भूल गया ।दुरितानि परासुव पहले अपने दुर्गुण दुर्व्यसन तो हटा तभी तो दूंगा। भक्त ने फिर पुकारा विश्वानि देव सवितर्- अब  भक्त को जोश आ गया कहने लगा कि भगवन् अब तो आपको देना ही पडेगा ,तो ईश्वर बोला कि क्यों भाई अब क्या हो गया ? तो भक्त बोला कि मैने आपको सविता कहा है और सविता पिता को कहते है आप मेरे पिता है तथा पिता की सम्पत्ति पर पुत्र का अधिकार होता है इसलिए अब तो देना ही पडेगा आपको।ईश्वर बोला ठीक है मैं दूंगा लेकिन पहले लेने का पात्र तो बन क्योंकि मैं पात्र को देता हूं। जैसे एक बहिनजी ने बहुत सुंदर स्वादिष्ट खीर बनाई ,तभी एक याचक आकर कहने लगा माताजी भिक्षा दो। वह बहिनजी खीर लेकर आयी और जब याचक ने खीर लेने के लिए अपना पात्र आगे बढाया तो बहिनजी बोली हे याचक तेरा यह पात्र तो गंदा है इसमें तो गोबर मिट्टी लगी है पहले इसे साफ कर।फिर इसमें खीर दूंगी नहीं तो ऐसे पात्र मे यह स्वादिष्ट खीर बेकार हो जायेंगी ।इसी तरह तेरे अन्दर जो काम क्रोध ,लोभ ,मोह ,अहंकार रुपी गन्दगी भरी है पहले इसे साफ कर तब दूंगा। फिर भक्त कहता है कि अच्छा मेरे अन्दर तो बहुत सी दुर्गुण इनमें से थोड़े से दूर कर लूं तो तब तो दे दोगे। ईश्वर बोला कि देखो यदि छलनी मे सौ छेद है और तुम निन्नानवे छेद बन्द करके उसमें पानी डालो तो क्या वह रुक जायेगा? इसी तरह यदि तुम्हारे अन्दर एक भी बुराई है तो वही तुम्हारा सर्वनाश कर देगी।इसलिए पहले पात्र तो बन ।पात्र वही होता है जो ग्रहण की गई वस्तु को सुरक्षित रखता है।जब तुम पात्र हो जाओगे तो मैं तुझे भद्र अर्थात् दोनो प्रकार का सुख पहला अभ्युदय अर्थात् चक्रवर्ती राज्य इष्ट मित्र ,धन स्त्री ,पुत्र और शारीरिक सुख ,तथा दूसरा नि:श्रेयस जिसको मोक्ष कहते है ,वह भी दूंगा लेकिन पात्र तो बन।

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