सत्य का निर्णय ।

मनुष्य का स्वभाव है कि वह आपनी आवश्यकता के अनुसार कार्य करता है. और जब वह किसी कार्य को बार -२ करने लगता है तो इसे उसकी आदत कहते है.जैसे किसी ने किसी की सहायता की ,तो यह एक कर्म है लेकिन यदि वह बार - २ सहायता करता है तो इसे उसकी आदत कहते है. मनुष्य की आदत अच्छी भी होती है बुरी भी .जैसे किसी को चुगली करने की आदत. इसी तरह जब कोई कार्य समाज मे सामुहिक रूप मे बार - २ किया जाता है तो उसे प्रथा कहा जाता है. प्रत्येक कार्य का कारण होता है बिना कारण के कार्य नही होता . और प्रथा के पीछे भी कारण होता है.प्रथा कार्य का बाह्य रूप है मूल नही.किन्तु धीरे - २ मूल उद्देश्य छूट जाता है और केवल बाह्य चिन्ह रह जाता है.फिर इसमे स्वार्थ और अज्ञानता के कारण विकार आ जाते है जिसे पाखण्ड कहते है. जैसे व्रत शब्द है जिसका अर्थ है प्रतीज्ञा करना.शतपथ ब्राह्मण मे यज्ञ के विषय मे कहा है कि जब यजमान पोर्णमास या दर्श यज्ञ करे तो व्रत करे अर्थात् जो अतिथि व विद्वान आये है उनसे पहले खाना न खाये. पहले उनकी सेवा करे .भोजन खिलाये उनके पास बैठे उपदेश ले बाद मे भोजन करे. व्रत को उपवास भी कहते है लेकिन इसका अर्थ भी भूखा मरना नही है. उप का अर्थ है समीप और वास का अर्थ है बैठना.अर्थात् विद्वानो के पास बैठना. उनसे उपदेश लेना.लेकिन अब मूल उद्देश्य छूट गया और व्रत का अर्थ भूखा रहना रह गया.लोग तरह - २ का व्रत रखते है कोई एकादशी का ,कोई हनुमान जी का. इसी प्रकार महाभारत के युद्ध के बाद जब सत्य शास्त्रो का पठन पाठन छूट गया तो स्वार्थी लोगो ने अर्थ का अनर्थ कर दिया ,सबसे बडी भ्रान्ति यज्ञ के विषय मे हुई यज्ञ का अर्थ है श्रेष्ठ कर्म कोई भी श्रेष्ठ कर्म यज्ञ कहलाता है. केवल हवन करना ही यज्ञ नही , ईश्वर की उपासना करना उसका धन्यवाद करना भी यज्ञ है जिसे ब्रह्म यज्ञ कहते है.माता पिता की सेवा करना भी यज्ञ है जिसे पितृ यज्ञ कहते है इसी तरह बलिवैश्वदेव यज्ञ व अतिथि यज्ञ है इनमे किसी मे भी अग्नि नही जलती.लेकिन शतपथ ब्राह्मण के एक वाक्य को सही ढंग से न जानने के कारण सब उल्टा हो गया.अश्वमेघ यज्ञ मे स्वार्थी मांसाहारी लोगो ने पशुओ को मारकर उनकी यज्ञ मे बलि देना प्रचलित कर दिया.और यज्ञ मे हिंसा होने लगी.जबकि अश्वमेघ यज्ञ का अर्थ है अग्नि मे घी डालना.( अग्निर्वा अश्व:,मेघो वा आज्यम् ब्राह्मण ग्रन्थ ) वैसे अश्व ईश्वर का भी नाम है क्योकि वही सबको सुख देता है. इस प्रकार यज्ञ मे हिंसा होने लगी.बाद मे महात्मा बुद्ध हुये जिन्होने इस हिंसा का विरोध किया .इस पर धूर्त लोगो ने कहा कि यह तो वेद मे लिखा है और वेद ईश्वर की वाणी है. तो बुद्ध ने कहा कि मै ऐसी पुस्तक और ऐसे ईश्वर को भी नही मानता जो जीवो की हिंसा की अनुमति दे. अर्थात् उनकी शिक्षा से लोग नास्तिक हो गये.अब यदि गलत भोजन या अधिक भोजन से कोई रोगी हो जाय तो इसका अर्थ यह नही कि हम भोजन करना ही छोड दे. महात्मा बुद्ध की भावना तो अच्छी थी लेकिन तरीका गलत था .होना तो यह चाहिये था कि वे यज्ञ का सही ढंग बताते किन्तु ऐसा नही हुआ.परिणामस्वरूप उनके अनुनायियो ने उन्हे ही अपना ईष्ट मान लिया और उनके जाने के बाद उनकी मूर्ति को ही आधार मान कर पूजने लगे.यही काम जैनियो ने किया . फिर पौराणिक लोगो ने भी ईश्वर के गुणवाचक नामो को साकार मानकर उनकी मूर्ति बनाकर पूजने लगे. इस प्रकार श्रेष्ठ कर्म मे विसंगति उत्पन्न हो गई.ऋषि दयानन्द जी और आर्य समाज इन बुराइयो का ही विरोध करता है क्योकि ऋषि के अनुसार " मनुष्य का जन्म सत्यासत्य का निर्णय करने कराने के लिये है न कि व्यर्थ का वाद विवाद बढाने के लिये ".

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